नैतिक कहानी: बात उन दिनों की है, जब मैं एम्स में अपनी किडनी के इलाज के लिए भर्ती था। क्योंकि दवा काफी महंगी थी, इसलिए मेरे पास रखे पैसे लगभग खत्म होते जा रहे थे और मैं गंभीर आर्थिक संकट से जूझ रहा था। मेरी एक दवा तो ऐसी थी कि मात्र 10 टेबलेट के लिए मुझे पंद्रह सौ रूपए चुकाने पड़ते थे। उस दिन चेकअप करने के लिए डॉक्टर साहब आए और अचानक मेरी दवा बदल दी।
मेरे पास उस दवा के पंद्रह टेबलेट बचे हुए थे। मेरे तो होश उड़ गए कि डॉक्टर साहब ने जो दवा लिखी है, उसे कैसे खरीद पाऊंगा। इससे ज्यादा मैं परेशान था कि शेष दवाई के पैसे बर्बाद हो गए। मैं परेशान हाल अपने बिस्तर पर लेटा था, कि अचानक सामने वाले बिस्तर पर एक मरीज को लाया गया। जो मुझसे ज्यादा चिंतित दिखाई दे रहा था। क्योंकि मेरी और उसकी बीमारी एक ही थी, इसलिए मैं उससे बातचीत करने लगा। बातचीत के क्रम में उसने बताया कि डॉक्टर साहब ने महंगी दवा लिख दी है और मेरे पास उसे खरीदने के लिए पैसे नहीं है। मैंने पर्चा देखा तो पाया कि, मेरे लिए बेकार हो चुकी दवा इसमें लिखी है।
बस मैंने मन ही मन निर्णय ले लिया और उस व्यक्ति को १५ टैबलेट देते हुए बोला लो, तुम्हारे कुछ दिनों का इंतजाम हो गया। अब मैंने खुद की मदद के लिए अपने परिचितों को फोन लगाना शुरू किया और सबसे पहले एक परिचित डॉक्टर को फोन लगाया। फोन रिसीव करते ही उन्होंने मेरी हालत पूछी। मैंने उन्हें सारी बात बताई। इसके ठीक एक दिन बाद ही मेरे पास उन डॉक्टर साहब के सौजन्य से 45 दिनों की दवा पहुंच गई। तब मैंने जाना कर भला तो हो भला।